धर्म संवाद/ डेस्क : किसी भी अनुष्ठान का फल ब्राह्मण को दक्षिणा दिए बिना पूरा नहीं होता। पूजा के बाद ब्राह्मणों को दक्षिणा दी जाती ही है। ब्राह्मणों को दक्षिणा देने की प्रथा धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से कई कारणों से जुड़ी है। यह धार्मिक कार्यों के पूर्ण होने का प्रतीक है, गुरु और समाज के प्रति सम्मान का प्रदर्शन है, और यह कर्मफल की मान्यता पर आधारित है। प्राचीन काल में भी शिक्षा पूरी होने पर विद्यार्थी अपने शिक्षक को गुरु दक्षिणा दिया करते थे। यह दक्षिणा केवल सोने, चांदी या सिक्कों की नहीं होती थी। ऐसे ही एकलव्य ने अपने गुरु ‘द्रोण’ को दक्षिणा के रूप में अंगूठा काटकर दे दिया था।
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कहते हैं कि दान करने वाले व्यक्ति को दान किया गया सब कुछ दोगुना होकर मिलता है। दान-दक्षिणा से कभी कोई गरीब नहीं होता बल्कि इससे उसकी समृद्धि में ही बढ़ोत्तरी होती है। शास्त्रों में यज्ञ को दक्षिणा के बिना अपूर्ण माना गया है। मान्यता हैं कि यज्ञ के बिना दक्षिणा और दक्षिणा के बिना यज्ञ अधूरा होता है। यज्ञ सविता (सूर्यदेव) और उनकी पत्नी दक्षिणा सावित्री को प्रसन्न करने का माध्यम है। इसलिए पंडित एवं ब्राहृमणों द्वारा यज्ञ करवाने पर दक्षिणा देने का विधान है। दक्षिणा देने से यज्ञ का फल प्राप्त होता है और शुभ कार्य पूर्ण होते हैं।
पुराणों में एक कथा मिलती है, जिसके अनुसार नारद जी ने भगवान विष्णु से पूछा कि बिना दक्षिणा दिए पूजा का फल किसे मिलता है तो नारायण ने उत्तर दिया, बिना दक्षिणा की पूजा का कोई फल ही नहीं होता क्योंकि बिना दक्षिणा वाला कर्म तो बलि के पेट में चला जाता है और नष्ट हो जाता है। मनुस्मृति में महाराज मनु ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि न्यून/कम दक्षिणा देकर कोई यज्ञ नहीं करना चाहिए। कम दक्षिणा देकर यज्ञ या पूजा पाठ कराने से यज्ञ की इन्द्रियाँ, यश, स्वर्ग, आयु, कीर्ति, प्रजा और पशुओं का नाश होता है। जितनी संभव हो उतनी दक्षिणा जरूर देनी चाहिए। अपनी इच्छानुसार से बेहतर हैं अपनी शक्ति के अनुसार देना। ब्राह्मण को लोभी होना चाहिए और न ही यजमान को दक्षिणा किसी उपकार की तरह देनी चाहिए।