धर्म संवाद / डेस्क : पुरी की प्रसिद्ध रथ यात्रा महापर्व केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि एक गहन आध्यात्मिक परंपरा है जो सदियों से चली आ रही है। हर साल भगवान जगन्नाथ अपने भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ रथ में सवार होकर जिस स्थान पर जाते हैं, वह स्थान है गुंडिचा मंदिर, जिसे भगवान की मौसी का घर कहा जाता है। लेकिन सवाल यह उठता है कि देवी गुंडिचा कौन थीं और भगवान उनसे मिलने क्यों जाते हैं?
राजा इन्द्रद्युम्न और रानी गुंडिचा की कथा
इस पौराणिक कथा की शुरुआत होती है चक्रवर्ती सम्राट इन्द्रद्युम्न से, जिन्होंने समुद्र से बहकर आई दिव्य लकड़ी (दारुब्रह्म) से भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियाँ बनवाईं। मंदिर का निर्माण भी राजा ने ही करवाया था। राजा की धर्मपत्नी थीं रानी गुंडिचा, जो इस निर्माण कार्य और पुरी क्षेत्र के आध्यात्मिक संरक्षण में सहायक बनीं।
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ब्रह्मलोक की यात्रा और मंदिर की स्थापना
कथाओं की माने, तो राजा इंद्रद्युम्न व उनकी धर्मपत्नी रानी गुंडिचा ने एक मंदिर का निर्माण करवाया था जो कि भगवान नीलमाधव को समर्पित था। मंदिर में देवप्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा के लिए योग्य ब्राह्मण कौन होगा इस पर मंथन किया जा रहा था। तब देवर्षि नारद ने कहा कि दिव्य विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा स्वयं ब्रह्माजी करें तो उचित होगा, इसलिए आप मेरे साथ चलिए और उन्हें आमंत्रण दीजिए, वह जरूर आएंगे।

राजा इसके लिए तैयार हो गए और ब्रह्मा जी को आमंत्रण देने के लिए देवर्षि के साथ चलने को कहने लगे। तब नारद मुनि ने कहा कि राजन, क्या आपने ठीक से विचार कर लिया है कि आप चलना चाहते हैं? राजा ने कहा, अवश्य । फिर नारद मुनि ने कहा, ठीक है पर ब्रह्मलोक चलने से पहले अपने परिवार से आखिरी बार मिल तो लीजिए। आप मनुष्य हैं और ब्रह्मलोक जाने के बाद आप जब लौटेंगे तो धरती पर बहुत समय बीच चुका होगा। कई शताब्दियां लगेंगी, तब न तो आपका राजपरिवार होगा न ही कोई सगे-संबंधी जीवित रहेंगे। आप ब्रह्म देव को लेकर लौटेंगे तो शायद ही आप इस क्षेत्र को पहचान पाएं।
अब राजा के लिए नई परेशानी सामने थी। वह मृत्यु से तो नहीं डरते थे लेकिन उन्हें इस बात की चिंता थी कि श्रीमंदिर की स्थापना नहीं हुई और जब तक ब्रह्मदेव को लेकर लौटे तबतक ये न जाने किस हाल में हो। देवर्षि नारद ने उनकी इस चिंता को भांपते हुए कहा कि, आप ब्रह्मलोक चलने से पहले राज्य में 100 कुएं, जलाशय और यात्रियों के लिए सराय बनवा दें। इसके साथ ही 100 यज्ञ करवाकर पुरी के इस क्षेत्र को पवित्र मंत्रों से बांध दें। इससे राज्य में कीर्ति रहेगी और पुरी क्षेत्र सुरक्षित रहेगा।

राजा ने ये सारे कार्य करवा लिए और फिर चलने के लिए तैयार हो गए. तब रानी गुंडिचा ने कहा कि, जब तक आप लौटकर नहीं आते मैं प्राणायाम के जरिए समाधि में रहूंगी और तप करूंगी। विद्यापति और ललिता ने कहा कि हम रानी की सेवा करते रहेंगे और राज्य का संरक्षण भी।
इसके बाद देवर्षि नारद के साथ ब्रह्मलोक पहुंचकर राजा ने ब्रह्माजी से आग्रह किया कि वो श्रीमंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के लिए पुरोहित बनें। ब्रह्मदेव ने राजा का आमंत्रण स्वीकार किया और उत्कल के श्रीक्षेत्र पहुंचे तो कई सौ साल बीत चुके थे। राजा बदल चुका था, पुरी में अब राजा गालु माधव का राज्य था। और राजा इंद्रद्युम्न की पीढ़ियों में से कोई जीवित नहीं बचा था।इस दौरान श्रीमंदिर भी समय की परतों के साथ रेत के नीचे दब गया था और सदियों तक रेत में ही रहा था।
परंतु राजा इंद्रद्युम्न के पहुंचेत ही दैवयोग से एक तूफान आया और समुद्र के किनारे बना श्रीमंदिर ऊपर आ गया। वहीं राजा गालु माधव ने उस क्षेत्र खुदाई करवाई और उसकी स्थापना कराने की तैयारी में जुट गए। लेकिन इसी समय पूर्व नए राजा गालुमाधव और प्राचीन राजा इंद्रद्युम्न के बीच मंदिर को लेकर विवाद खड़ा हो गया। दोनों राजा दावा करने लगे की मंदिर उन्होंने बनवाया है। तब हनुमान जी संत के वेश में आए और उन्होंने सारे घटनाक्रमों ने नए राजा गालु माधव को अवगत कराया। राजा गालु माधव भी कृ्ष्णभक्त थे। संत वेश में हनुमान जी ने उनसे कहा कि, अगर ये राजा सत्य बोल रहे हैं तो इन्हें मंदिर के गर्भगृह का द्वार खोजने के लिए कहो।
गालुमाधव के कहने पर राजा इंद्रद्युम्न जिन्होंने इस मंदिर को बनवाया ही था, उन्होंने सहजता से रेत में दबे मंदिर के गर्भगृह का मार्ग खोज लिया जो कि गालुमाधव के सैनिक और कारीगर अभी तक नहीं कर पाए थे। मंदिर का गर्भगृह सामने आते ही चारों ओर नील माधव का नीला प्रकाश फैल गया और मंदिर अपनी पूर्णता के साथ सामने आ गया।
रानी गुंडिचा की पुनरावृत्ति और मौसी बनने की कथा
राजा के लौटने पर रानी गुंडिचा समाधि से बाहर आईं। उन्हें वहां के लोगों ने देवी के रूप में पूजा और अपनी कुलदेवी मान लिया। उनका मानना था की देवी गुंडीचा के वजह से ही पुरी क्षेत्र में कभी कोई आपदा नहीं आई। रानी ने लोगों को बताया कि वे कोई देवी नहीं, बल्कि इस क्षेत्र की पूर्वज हैं। एक बार फिर राजा इंद्रद्युम्न और रानी का मिलन हुआ। रानी की बात सुनकर राजा गालु माधव को भी सभी बातों पर भरोसा हो गया। इसके अलावा उन्हें राजा के बनवाए 100 कुएं जलाशय और सराय के भी अवशेष मिले, गालु माधव ने खुद को राजा की शरण में सौंप दिया और उनसे कृष्ण भक्ति पाने की प्रार्थना की।
लेकिन यहाँ एक और मुश्किल खड़ी हो गई । ब्रह्मा जी ने मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा करने से इनकार कर दिया । ब्रह्माजी ने कहा, यह श्रीक्षेत्र भगवान की अंतरंगा शक्ति द्वारा प्रकट किया जाता है। इसमें भगवान स्वयं प्रकट होते हैं। यहां पर भगवान की स्थापना कर पाना मेरे बस में नहीं है। इस भौतिक जगत में भगवान जगन्नाथ और उनका धाम उनकी निजी कृपा से नित्य स्थित है। मैं मन्दिर की चोटी पर झंडा भर फहराऊंगा और यह वर दूंगा कि जो भी इस झंडे को दूर से देखकर शीश झुकाएगा और प्रणाम करेगा, वह मुक्त हो जाएगा” । राजा इन्द्रद्युम्न निराश हो गए। उनकी आस छूट गई और उन्होंने अपना जीवन व्यर्थ समझकर अन्त करने का संकल्प कर लिया।

उसी रात भगवान ने स्वप्न में दर्शन दिए और उन्हें बताया “अरे राजा तुम क्यों चिन्तित हो। मैं दारुब्रह्म (लकड़ी) के रूप में समुद्र में बहता हुआ बांकीमुहान स्थान पर आऊंगा।” तब राजा की उम्मीद जागी। वह सैनिकों समेत दूसरे ही दिन उस स्थान पर गए और किनारे पर इंतजार करने लगे। अचानक एक काठ का बहुत बड़ा टुकड़ा बहता हुआ आया, जिसमें शंख, चक्र, गदा व कमल चिह्नित थे। उसे वहाँ से लाने का जहां प्रयास किया गया । वो हिल ही नहीं वहाँ से। राजा ने सैनिकों की मदद से उस दारुब्रह्म (लड़की) को हटाने के लिए हाथियों को भी लगा दिया, लेकिन इतना भारी दारुब्रह्म टस से मस न हुआ।
उसी रात भगवान जगन्नाथ दोबारा राजा के सपने में आए कहा, “मेरे पहले वाले सेवक विश्वासु को लाओ, जो नीलमाधव के रूप में मेरी सेवा करता था. दारुब्रह्म के सामने एक सोने का रथ रखो। चक्रवर्ती राजा ने वही किया ।रथ रखा गए विवशवसू को भी बुलाया गया । वहीं दूसरी ओर ब्राह्मण विद्यापति को भी बैठाया। कीतर्न शुरू हुआ, दारुब्रह्म को पकड़कर राजा इन्द्रद्युम्न ने भगवान से प्रार्थना की कि वे रथ पर चढ़ें। फिर वो दरूबरामः हिला।
इस तरह दारुब्रह्ना को रथ में चढ़ाकर उपयुक्त स्थान में ले जाया गया। वहां ब्रह्माजी ने एक यज्ञ प्रारम्भ किया और यज्ञ की वेदिका पर भगवान नृसिंहदेव की मूर्ति स्थापित की। कहते हैं कि वर्तमान मंदिर उसी यज्ञ-स्थल पर खड़ा है और मंदिर में जो नृसिंह मूर्ति खड़ी है, वह वही वाली मूर्ति है।
मूर्तियों का निर्माण और विश्वकर्मा की लीला
अब जब लकड़ी मंदिर में पहुँच गई तो बारी थी मूर्ति गढ़ने की । महाप्रभु जगन्नाथ की मूर्ति बनवाने के लिए राजा इन्द्रद्युम्न ने कई कुशल बढ़ई बुलवाए, लेकिन उनमें से कोई भी दारुब्रह्ना का स्पर्श तक न कर सका, जैसे ही मूर्ति बनाने का काम शुरू होता, उनका बसूला खण्ड-खण्ड हो जाता। अन्त में भगवान विश्वकर्मा एक बूढ़े कलाकार का वेश धारण कर आए और अपना परिचय अनन्त महाराणा बताया ।

उन्होंने राजा को कहा कि वे नीलमाधव की मूर्ति बना सकते हैं, लेकिन साथ ही उन्होंने अपनी शर्त भी रखी कि वे 21 दिन में मूर्ति बनाएंगे और अकेले में बनाएंगे। कोई उनको बनाते हुए नहीं देख सकता। उनकी शर्त मान ली गई। लोगों को आरी, छैनी, हथौड़ी की आवाजें आती रहीं। लेकिन जब चौदह दिन हो गए और राजा को बढ़ई के औजार चलाने की आवाज नहीं सुनाई पड़ी तो वह चिन्तित हो उठे। उन्होंने अपनी रानी के कहने पर मंदिर के द्वार जबरन खोल दिए।
दरवाजा खुलते ही उन्हे दिखा कि अंदर कोई भी नहीं था। वो बूढ़ा बढ़ई भी नहीं था। लेकिन दारुब्रह्म की जगह पर जगन्नाथ, सुभद्रा और बलराम के तीन रूप मिले. परंतु इन तीनों मूर्तियों के हाथों-पांवो की अंगुलियां अधूरी रह गई हैं। शुभद्रा जी के तो हाथ ही नहीं बन पाए थे । तब राजा के मंत्री ने बतलाया कि यह बढ़ई अवश्य साक्षात भगवान विश्वकर्मा थे और राजा ने 7 दिन पूर्व दरवाजा खोलकर अपना वचन भंग किया है इसलिए मूर्तियाँ अधूरी रह गई जिन्हे पूरा नहीं किया जा सकेगा । इस पर राजा ने अपने को अपराधी मानते हुए अपना जीवन समाप्त करने का निश्चय किया। वह कुश शैय्या पर लेटकर उपवास करने लगे।

जब आधी रात बीती तो जगन्नाथ फिर से राजा के सपने में आए और बोले, “मैं दारुब्रह्म जगन्नाथ के रूप में नीलाचल में शाश्वत स्थित हूं। मैं इस भौतिक जगत में अपने धाम समेत अपने 24 अर्चाविग्रहों समेत अवतरित होता हूं। भले मेरे हाथ-पांव नहीं हैं, लेकिन मैं अपने भक्तों द्वारा अर्पित सारी वस्तुएं ग्रहण करता हूं और संसार के लाभ के लिए मैं एक स्थान से दूसरे स्थान जाता रहता हूं। तुमने अपना वचन-भंग किया है, लेकिन यही मेरी लीलाओं की मधुरता है कि ऐसा जगन्नाथ स्वरूप प्रकट हुआ है, जो वेद वाक्यों की रक्षा करता है। यदि तुम धूमधाम से मेरी सेवा करना चाहो तो सोने या चांदी के बने हाथों व पांवों से मुझे सजा सकते हो, लेकिन याद रहे कि मेरे ये अंग ही समस्त आभूषणों के आभूषण हैं।
इन सब के बाद मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा हुई। ब्रह्मदेव ने एक यज्ञ कराकर रानी गुंडिचा और राजा इंद्रद्युम्न के हाथों जगन्नाथ भगवान की प्राण प्रतिष्ठा कराई। प्रतिष्ठा होते ही भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा और भाई बलभद्र के साथ प्रकट हो गए।उन्होंने राजा को आशीष देकर उससे मनचाहे वर मांगने को कहा। राजा ने मांगा कि जिन सैनिकों-श्रमिकों ने मंदिर के निर्माण और इसे फिर से रेत से निकाल लेने में श्रम किया, उन सभी पर अपनी कृपा बनाए रखना। जगन्नाथ भगवान ने कहा और वर मांगो। जिस पर राजा ने कहा जगन्नाथजी की कथा जब कही-सुनी जाए तो मेरे भाई विद्यापति और उसकी पत्नी ललिता व आपके परम भक्त विश्ववसु का नाम भी जरूर लिया जाए।भगवान ने कहा और वर मानगो। मेरी इच्छा है कि मैं सन्तान विहीन रहूं, जिससे आपके मन्दिर को अपनी संपत्ति न बना सकूं।
भगवान ने और वर मांगने को कहा जिस पर राजा ने कहा- इस कार्य में साथ देने के लिए अपने मातृत्व सुख का रानी गुंडिचा ने त्याग कर दिया, उन्हें अपने चरणों में स्थान दें। जगन्नाथजी ने कहा और वर मांगो। जिस पर राजा ने कहा इस मंदिर में दर्शन जो श्रद्धालु दर्शन करें वे धर्म पथ पर चलें। भगवान ने कहा और वर मांगो।तब राजा ने कहा और क्या मांगू। तब बलभद्र ने कहा तुमने दूसरों के लिए मांगा है अपने लिए नहीं। जिस पर राजा ने कहा, आप तीनों के साक्षात दर्शन हो गए, अब कोई लालसा नहीं। भगवान जगन्नाथ ने राजा की सारी इच्छा पूरी कर दी और कहा कि विश्ववसु, ललिता और विद्यापति के वंशज ही मंदिर के मुख्य पुजारी होंगे। मंदिर से जुडे़ कई विधान इन्हीं के द्वारा संपन्न होंगे।
आज भी जगन्नाथ मंदिर में रथ के अलावा नई प्रतिमाओं का निर्माण भी तब से चले आ रहे सेवकों के वंशज ही कर रहे हैं। उन्हें दयिता कहा जाता है । विद्यापति की ब्राह्मण पत्नी के वंशज अर्चाविग्रह की पूजा करते हैं और उसकी शबर पत्नी ललिता से उत्पन्न संतानें उनके लिए भोजन पकाती हैं।
देवी गुंडिचा का मंदिर और रथ यात्रा

उसके बाद भगवान जन्नाथ ने रानी गुंडिचा से कहा ,“मां के समान आपने मेरी प्रतीक्षा की है, आप मेरी मां जैसी हैं इसलिए आप मेरी मौसी हुईं। साल में एक बार मैं आपके तपस्थल –आऊंगा।” वह स्थान अब मेरी मौसी गुंडिचा का मंदिर होगा. इसे देवी पीठ के तौर मान्यता मिलेगी। इस तरह जगन्नाथ भगवान अपने भाई बहन के साथ पुरी में वास करने लगे और हर साल मौसी के यहां जाने लगे और आज भी यही परंपरा है।
गुंडिचा मंदिर, जो आज पुरी मंदिर से लगभग तीन किलोमीटर दूर है, उसी तपस्थल पर बना हुआ है जहां रानी ने तप किया था। रथ यात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा रथ में सवार होकर वहां पहुंचते हैं और सात से नौ दिन वहीं निवास करते हैं। इस अवधि में गुंडिचा मंदिर में विशेष पूजा, भजन, कीर्तन और पवित्र अनुष्ठान होते हैं।