धर्म संवाद / डेस्क : साल 1664 में औरंगज़ेब और उसकी सेना ने काशी विश्वनाथ मंदिर पर हमला किया था । उसे रोकने वाला उस वक्त कोई नहीं था। परंतु आज भी काशी विश्वनाथ मंदिर खड़ा है और इसका कारण है उस वक्त औरंगजेब के हथियार बंद सैनिकों वाली बड़ी सेना से टक्कर ले कर उन्हे परास्त करने वाले नागा साधु की फौज। नागा साधुओं ने मंदिर का बचाव किया और औरंगजेब की सेना को बुरी तरह हराया। मुगलों की इस हार का वर्णन जेम्स जी,लोचटेफेल्ड की किताब ‘द इलस्ट्रेटेड इनसाइक्लोपीडिया ऑफ हिंदूइज्म,वॉल्यूम 1’ में मिलता है। इस किताब के मुताबिक वाराणसी के महानिर्वाणी अखाड़े के नागा साधुओं ने औरंगजेब के खिलाफ कड़ा विरोध किया था और मुगलों की हार हुई थी।
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4 साल बाद यानी 1669 में औरंगजेब ने फिर से हमला किया और मंदिर और मठों में तोड़फोड़ की। औरंगजेब जानता था कि मंदिर हिंदुओं की आस्था और भावनाओं से जुड़ा है इसलिए उसने ये सुनिश्चित किया कि इसे फिर से नहीं बनाया जाएगा और इसकी जगह ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण किया गया। ये मस्जिद आज भी मंदिर परिसर में मौजूद है। स्थानीय लोककथाओं और मौखिक कथाओं के अनुसार लगभग 40,000 नागा साधुओं ने काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहुति दी थी। अहमद शाह अब्दाली के मथुरा-वृन्दावन के बाद गोकुल पर आक्रमण करने पर नागा साधुओं ने मुकाबला करके गोकुल की रक्षा की थी. राजा महाराजा भी इनकी मदद लिया करते थे।
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तो अब सवाल ये उठता है कि आखिर है कौन ये साधु जो खुद को साधु कहते हुए भी अस्त्र उठाते हैं। तो आपको बता दे इन्हे नागा साधु कहते हैं और ये अस्तित्व में आए ही इसलिए थे ताकि सनातन धर्म की रक्षा हो सके। जी हाँ, इनके उद्गम की कथा जानने से पहले आपको आदि शंकराचार्य के बारे में जानना होगा। दरअसल भारतीय सनातन धर्म के वर्तमान स्वरूप की नींव आदिगुरू शंकराचार्य ने रखी थी। शंकराचार्य का जन्म 8वीं शताब्दी के मध्य में हुआ था जब भारतीय जनमानस की दशा और दिशा बहुत बेहतर नहीं थी। भारत की धन संपदा लूटने कई आक्रमणकारी यहां आ रहे थे। भारत की शांति-व्यवस्था खतरे में थी। ईश्वर, धर्म, धर्मशास्त्रों को तर्क, शस्त्र और शास्त्र सभी तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था। ऐसे में शंकराचार्य ने सनातन धर्म की स्थापना के लिए कई कदम उठाए जिनमें से एक था देश के चार कोनों पर चार पीठों का निर्माण करना। यह थीं गोवर्धन पीठ, शारदा पीठ, द्वारिका पीठ और ज्योतिर्मठ पीठ। इसके अलावा आदिगुरू ने मठों- मंदिरों की संपत्ति को लूटने वालों और श्रद्धालुओं को सताने वालों का मुकाबला करने के लिए सनातन धर्म के विभिन्न संप्रदायों की सशस्त्र शाखाओं के रूप में अखाड़ों की स्थापना की शुरूआत की।
आदिगुरू ये समझ गए थे कि सामाजिक उथल-पुथल के उस युग में केवल आध्यात्मिक शक्ति से ही इन चुनौतियों का मुकाबला करना काफी नहीं है। उन्होंने जोर दिया कि युवा साधु व्यायाम करके अपने शरीर को सुदृढ़ बनाएं और हथियार चलाने में भी कुशलता हासिल करें। इसलिए ऐसे मठ बने जहां इस तरह के व्यायाम या शस्त्र संचालन का अभ्यास कराया जाता था, ऐसे मठों को अखाड़ा कहा जाने लगा। शंकराचार्य ने अखाड़ों को सुझाव दिया कि मठ, मंदिरों और श्रद्धालुओं की रक्षा के लिए जरूरत पडऩे पर शक्ति का प्रयोग अवश्य करें। इस तरह बाह्य आक्रमणों के उस दौर में इन अखाड़ों ने एक सुरक्षा कवच का काम किया। कई बार स्थानीय राजा-महाराज विदेशी आक्रमण की स्थिति में नागा योद्धा साधुओं का सहयोग लिया करते थे। इतिहास में ऐसे कई गौरवपूर्ण युद्धों का वर्णन मिलता है जिनमें 40 हजार से ज्यादा नागा योद्धाओं ने हिस्सा लिया। भारत की आजादी के बाद इन अखाड़ों ने अपना सैन्य चरित्र त्याग दिया। इस समय 13 प्रमुख अखाड़े हैं जिनमें प्रत्येक के शीर्ष पर महंत आसीन होते हैं।
नागा साधु बनने की प्रक्रिया
नागा साधु बनने की प्रक्रिया बेहद कठिन मानी जाती है। अखाड़ों के द्वारा व्यक्ति को नागा साधु बनाया जाता है। अखाड़ा समिति देखती है कि व्यक्ति साधु के योग्य है या नहीं? इसके बाद उस व्यक्ति को अखाड़े में प्रवेश दिया जाता है। कई तरह की परीक्षाएं देनी होती हैं। नागा साधु बनने के लिए ब्रह्मचर्य के नियम का पालन करना अति आवश्यक होता है। इस प्रक्रिया में 6 महीने से लेकर 1 वर्ष तक का समय लग सकता है। इस परीक्षा में सफलता पाने के लिए साधक को 5 गुरु से दीक्षा प्राप्त करनी होती है। शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश द्वारा, जिन्हें पंच देव भी कहा जाता है। नागा साधु बनने की प्रक्रिया में 12 साल लग जाते हैं, जिसमें 6 साल को महत्वपूर्ण माना गया है. इस अवधि में वे नागा पंथ में शामिल होने के लिए वे जरूरी जानकारियों को हासिल करते हैं और इस दौरान लंगोट के अलावा और कुछ भी नहीं पहनते. कुंभ मेले में प्रण लेने के बाद वह इस लंगोट का भी त्याग कर देते हैं और जीवनभर नग्न अवस्था में ही रहते हैं। इसी वजह से वह अपने शरीर को ढकने के लिए भस्म लगाते हैं।
ब्रह्मचार्य की शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्हें महापुरुष दीक्षा दी जाती है और फिर यज्ञोपवीत होता है। इसके बाद वे अपने परिवार और स्वंय अपना पिंडदान करते हैं. इस प्रकिया को ‘बिजवान’ कहा जाता है। यही कारण है कि नागा साधुओं के लिए सांसारिक परिवार का महत्व नहीं होता, ये समुदाय को ही अपना परिवार मानते हैं।
नाग साधु पूरे दिन में केवल एक समय ही भोजन ग्रहण करते हैं। और वो भी भिक्षा प्राप्त हुए भोजन का सेवन करते हैं। वे एक दिन में सिर्फ 7 घरों से ही भिक्षा मांग सकते हैं. यदि इन घरों से भिक्षा मिली तो ठीक वरना उन्हें बिना भोजन के रहना पड़ता है। नागा साधु सोने के लिए भी बिस्तर का प्रयोग नहीं करते हैं।
कुम्भ मेला 4 जगह लगता है। इन्ही चार जगह लगने वाले कुंभ में नागा साधु बनाए जाते हैं और हर जगह के हिसाब से इन नागा साधुओं को अलग-अलग नाम दिए जाते हैं। प्रयागराज के कुंभ में नागा साधु बनने वाले को नागा, उज्जैन में बनने वाले को खूनी नागा, हरिद्वार में बनने वाले को बर्फानी नागा तथा नासिक में बनने वाले को खिचड़िया नागा कहा जाता है। नागा में दीक्षा लेने के बाद साधुओं को उनकी वरीयता के आधार पर पद भी दिए जाते हैं। इनमें कोतवाल, पुजारी, बड़ा कोतवाल, भंडारी, कोठारी, बड़ा कोठारी, महंत और सचिव के पद होते हैं। इनमें सबसे बड़ा और अहम पद सचिव का होता है।