रावण का जन्म कैसे हुआ था

By Tami

Updated on:

रावण का जन्म

धर्म संवाद / डेस्क : रावण, हिंदू धर्म के महाकाव्य रामायण  का एक प्रमुख पात्र है, जिसे राक्षसों का राजा और लंका का सम्राट माना जाता है। वह अपनी शक्ति, विद्या, तपस्या और शिव भक्ति के लिए प्रसिद्ध था, लेकिन उसके जन्म की कथा भी बहुत दिलचस्प और रहस्यमय है। रावण के जन्म के विषय में भिन्न-भिन्न ग्रंथों में भिन्न-भिन्न प्रकार के उल्लेख मिलते हैं। वाल्मीकि द्वारा लिखित रामायण,पद्मपुराण तथा श्रीमद्‍भागवत पुराण के अनुसार दैत्य हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकशिपु दूसरे जन्म में रावण और कुंभकर्ण के रूप में पैदा हुए। ऐसा माना जाता है कि उसका जन्म 3 श्रापों के कारण हुआ था।

यह भी पढ़े : आखिर कहाँ है रावण का गांव, क्या पूजे जाते हैं वहाँ राम ?

वाल्मीकि रामायण के अनुसार, रावण पुलत्स्य मुनि के पुत्र महर्षि विश्रवा और राक्षसी कैकसी का पुत्र था. विश्रवा एक महान ब्राह्मण और तपस्वी थे। उन्होंने भगवान शिव की तपस्या की थी। वह चाहते थे कि उनका कोई पुत्र अद्वितीय शक्ति और वीरता का प्रतीक बने, जो देवताओं से भी मुकाबला कर सके। विश्रवा के तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें वरदान दिया कि उनका पुत्र महान शक्ति और ज्ञान से संपन्न होगा।

WhatsApp channel Join Now
Telegram Group Join Now
Instagram Join Now

पौराणिक ग्रंथों के अनुसार, समुद्र मंथन से निकले अमृत को पीकर जब देवतागण राक्षसों से अधिक‍ शक्तिशाली हो गए तो राक्षसों को चिंता होने लगी कि इस तरह तो उनके समूचे कुल का नाश हो जाएगा और राक्षसों के साम्राज्‍य का अंत हो जाएगा। तब सर्वसम्‍मति से राक्षसों के बीच में इस बात पर सहमति बनी कि एक राक्षसों की पुत्री ऐसे शक्तिशाली पुरुष को जन्‍म दे जो ब्राह्मण भी हो और राक्षसों के कहने पर देवताओं के साथ युद्ध करके उन्‍हें हरा सके। तब राक्षस राज सुमाली अपनी पुत्री कैकसी के पास पहुंचा और उससे कहा, ‘पुत्री अब तुम विवाह योग्‍य हो चुकी हो। मैं चाहता हूं कि तुम राक्षस वंश के कल्‍याण के लिए महापराक्रमी ऋषि विश्रवा से विवाह करो और एक तेजस्‍वी और पराक्रमी बालक को जन्‍म दो।’ कैकसी ने अपने कर्तव्‍य का पालन किया। 

वह ऋषि विश्रवा से मिलने के लिए पाताल लोक से पृथ्‍वी लोक को निकल पड़ी। पृथ्‍वी लोक तक पहुंचते कैकसी को काफी समय लग गया और इस कारण वह शाम को ऋषि विश्रवा के आश्रम पहुंची। यहां आकर कैकसी ने ऋषि विश्रवा को चरण स्‍पर्श किया और फिर अपने मन की इच्‍छा उन्‍हें बताई।

कैकसी की बातों को सुनकर ऋषि विश्रवा उससे विवाह करने को तैयार हो गए, लेकिन साथ ही उन्‍हें कैकसी को यह बात भी कही, तुम शाम की बेला में मेरे पास आई हो। इसलिए मेरे पुत्र क्रूर और बुरे कर्म करने वाले होंगे और उनकी शक्‍ल भी राक्षसों जैसी होगी, लेकिन मेरा तीसरा पुत्र मेरी तरह धर्मात्‍मा होगा। इस तरह ऋषि विश्रवा और कैकसी ने रावण, कुंभकर्ण, पुत्री सूपर्णखा का जन्‍म हुआ। सबसे आखिर में और तीसरे पुत्र के रूप में धर्मात्‍मा विभीषण का जन्‍म हुआ।

रावण के जन्म का कारण माने जाने वाले 3 श्राप

बताया जाता है भगवान विष्णु के दर्शन हेतु सनक, सनंदन आदि ऋषि बैकुंठ पधारे परंतु भगवान विष्णु के द्वारपाल जय और विजय ने उन्हें प्रवेश देने से इंकार कर दिया। ऋषिगण अप्रसन्न हो गए और क्रोध में आकर दोनों को मृत्युलोक में जन्म लेने का श्राप दे दिया। जब जय-विजय ने इस श्राप से मुक्ति का मार्ग पूछा तो ब्राह्मणों ने भगवान विष्णु की ओर इशारा कर दिया। भगवान विष्णु ने भी ऋषियों से क्षमा करने को कहा। तब ऋषियों ने अपने शाप की तीव्रता कम की और कहा कि तीन जन्मों तक तो तुम्हें राक्षस योनि में रहना पड़ेगा और उसके बाद तुम पुनः इस पद पर प्रतिष्ठित हो सकोगे। इसके साथ एक और शर्त थी कि भगवान विष्णु या उनके किसी अवतारी स्वरूप के हाथों तुम्हारा मरना अनिवार्य होगा। यही जय और विजय सतयुग में हिरण्याक्ष व हिरण्यकशिपु , त्रेता युग में रावण और कुंभकरण, एवं द्वापर युग में शिशुपाल व दंतवक्त्र नाम के अनाचारी के रूप में पैदा हुए थे। 

एक और कथा के अनुसार, एक बार नारद मुनि को अहंकार हो गया कि वह माया को जीत चुके हैं। भगवान विष्णु उनके अहंकार को समझ गए। उन्होंने माया से एक नगर बनाया। नारद मुनि माया के प्रभाव में उस नगर में पहुंच गए और वहां के राजा से मिले। राजा ने मुनि को अपनी पुत्री का हाथ दिखाया और विवाह योग्य वर के बारे में पूछा। कन्या को देखते ही नारद मुनि उस पर मोहित हो गए। नारद मुनि ने राजा से कहा कि कन्या का स्वयंवर रचाइए, योग्य वर मिल जाएगा। इतना कहकर नारद वैकुंठ पहुंचे और भगवान विष्णु को मन की बात बताई। उन्होंने कहा कि प्रभु संसार में आप से सुंदर कोई नहीं है। मुझे हरिमुख (यानी आप अपना रूप दे दीजिए) दे दीजिए। भगवान ने फिर पूछा- क्या दे दूं, नारद बोले- हरिमुख, प्रभु हरिमुख। संस्कृत में हरि का एक अर्थ बंदर भी होता है।

बस फिर भगवान विष्णु ने नारद मुनि को बंदर बना दिया। नारद जी यही रूप लेकर स्वयंवर गए. वहां शिवजी ने, विष्णुजी के कहने पर अपने दो गणों को भेज रखा था। स्वयंवर में नारद मुनि उछल-उछल कर अपनी गर्दन आगे कर रहे थे कि कन्या उन्हें देखे और उनके गले में वरमाला डाल दे। उनकी यह हरकत देख, कन्या हंस पर और शिवजी के भेष बदलकर पहुंचे गणों ने भी उनका उपहास उड़ाना शुरू कर दिया। कहने लगे- कन्या को देखकर बंदर भी स्वयंवर के लिए आ गए हैं। अपना मजाक उड़ता देख नारद ने दोनों को श्राप दिया कि तुमने मुझे बंदर कहा, जाओ तुम लोगों को मृत्युलोक में बंदर ही सबक सिखाएंगे। शिवजी के ये दोनों गण रावण और कुंभकर्ण बने। इसके बाद नारद ने देखा कि कन्या ने जिसके गले में वरमाला डाली वह खुद ही श्रीहरि हैं। तब नारद ने उन्हें श्राप दिया कि जिस तरह तुम मेरी होने वाली पत्नी को ले गए और मैं वियोग-विलाप कर रहा हूं, एक दिन तुम्हारी भी पत्नी का हरण होगा और तुम विलाप में वन-वन भटकोगे। इस तरह राम और रावण का जन्म होना तय हो गया। साथ ही श्रीराम को अपनी पत्नी सिता का वियोग सहना पड़ा।

See also  द्रोपदी चीर हरण प्रसंग

एक और कथा के मुताबिक,सतयुग के अंत में एक राजा हुआ करते थे प्रतापभानु. वह एक बार जंगल में राह भटक गए और एक कपटी मुनि के आश्रम में पहुंच गए। यह कपटी प्रतापभानु के द्वारा ही हराया हुआ एक राजा था। उसने राजा को पहचान लिया, लेकिन प्रतापभानु कपटी मुनि की असलियत नहीं पहचान पाया। इस तरह मुनि ने राजा की ऐसी बातें बताईं जो सिर्फ उसके जानने वाले ही जानते थे। इससे राजा को लगा कि यह कोई सिद्ध पुरुष है। राजा ने उससे चक्रवर्ती होने का उपाय पूछा। कपटी मुनि ने कहा कि तीन दिन बाद ब्राह्मणों को भोजन कराओ और उन्हें प्रसन्न कर लो। उनके आशीष से ही तुम चक्रवर्ती बनोगे। ब्राह्मणों का भोजन बनाने मैं खुद आऊंगा।

तीन दिन बाद वह कपटी मुनि पहुंचा। राजा ने एक लाख ब्राह्मणों को भोजन पर बुलाया था। जैसे ही भोजन परोसा जाने लगा उसी समय आकाशवाणी हुई कि भोजन में मांस मिला हुआ है। यह अभक्ष्य है। प्रतापभानु से नाराज ब्राह्मणों ने उसे, कुटुंब समेत राक्षस हो जाने का श्राप दिया। यही प्रतापभानु रावण बना, उसका भाई कुंभकर्ण बना और प्रतापभानु का मंत्री वरुरुचि विभीषण बनकर जन्मा। विभीषण को सिर्फ राक्षस कुल में जम्न लेने का श्राप था, इसलिए वह राक्षस होकर भी धर्मपरायण था।

रावण के जन्म के साथ ही उसकी अद्वितीय शक्ति, ज्ञान, और तपस्या की विशेषताएँ भी पैदा हुईं। वह न केवल एक महान योद्धा था, बल्कि उसने शास्त्रों, संगीत, और नृत्य में भी विशेष प्रशिक्षण लिया। रावण के पास भगवान शिव की कृपा थी, और उसने शिव से विशेष वरदान प्राप्त किए थे, जिनके कारण उसकी शक्ति और सामर्थ्य में अप्रतिम वृद्धि हुई। रावण ने पवित्र ग्रंथों का अध्ययन किया और साथ ही युद्धकला में भी पारंगत हुआ। हालांकि वह एक राक्षस था, रावण की विद्वता, ताकत और देवताओं से मुकाबला करने की क्षमता उसे अद्वितीय बनाती है।

Tami

Tamishree Mukherjee I am researching on Sanatan Dharm and various hindu religious texts since last year .