धर्म संवाद / डेस्क : हिन्दू धर्म में विवाह का अनुष्ठान बहुत ही धूम–धाम से मनाया जाता है। समय के साथ कई बदलाव हुए हैं मगर रीति-रिवाज़ आह भी वही हैं जो हमारे धर्म शास्त्रों में वर्णित है। इस धर्म में शादी सिर्फ दूल्हा-दुल्हन के बीच नहीं होती, बल्कि दो परिवारों के बीच होती है। शादी में होने वाली सारी रस्मों में वरमाला या जयमाला की रस्म सबसे प्रचलित है। चलिए इस रस्म के बारे में विस्तार से जानते हैं।
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वरमाला का ज़िक्र वेदों में भी मिलता है। यह विवाह समारोह में अपनाई जाने वाली सबसे पुरानी परंपराओं में से एक है। दक्षिण भारत में वरमाला आमतौर पर बड़ा और भारी होता है, जबकि उत्तरी भाग में यह हल्का होता है। यह रस्म दूल्हे के बारात लेकर शादी स्थल पर पहुंचने पर दुल्हन की मां द्वारा आरती उतारने के बाद होती है।
वरमाला की रस्म का इतिहास भगवान शिव और माता पार्वती के विवाह के समय का माना जाता है। श्रीराम और माता सीता के विवाह में भी इसका उपयोग हुआ है। श्रीराम द्वारा धनुष तोड़ने के बाद माता सीता ने वरमाला पहना कर श्रीराम को अपने पति के रूप में स्वीकार किया था। जब दूल्हा- दुल्हन एक-दूसरे को माला पहनाते है तो माना ये जाता है कि दोनों एक-दूसरे को जीवनभर के लिए पति-पत्नी के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। साथ ही वरमाला के साथ ही सात जन्मों के बंधन में बंधने की दिशा में अपना पहला कदम बढ़ाते हैं।
वरमाला में विभिन्न प्रकार के रंग-बिरंगे फूलों को शामिल किया जाता है। वरमाला में सफेद रंग, लाल रंग, पीला रंग, हरा रंग, गुलाबी रंग आदि के फूल अधिकतर देखने को मिलते हैं। माला बनाने के लिए गुलाब, कारनेशन, ऑर्किड, गेंदा आदि फूलों का उपयोग किया जाता है। ये फूल सुंदरता, खुशी, उत्साह का प्रतीक माने जाते हैं। आज के समय में कुछ लोग वरमाला में रुपया या डॉलर डालते हैं, इसे जोड़े के लिए सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है।