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बंगाल में आखिर कब शुरू हुई थी दुर्गा पूजा

By Tami

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बंगाल में आखिर कब शुरू हुई थी दुर्गा पूजा

धर्म संवाद / डेस्क : पश्चिम बंगाल की दुर्गापूजा विश्व प्रसिद्ध है. दुनिया भर से लोग शारदीय नवरात्रि के समय पश्चिम बंगाल पहुंचते हैं और माँ दुर्गा को समर्पित इस पावन पर्व का आनंद उठाते है. कहा जाता है कि बंगाल से ही देश के दूसरे हिस्सों में दुर्गा पूजा आयोजित करने का चलन फैला. आज भव्य पंडाल, चकाचौंध और एक से बढ़ कर एक मां दुर्गा की प्रतिमा होती है लेकिन क्या आप जानते हैं कि बंगाल की यह भव्य दुर्गापूजा की शुरुआत् कब हई ? कौन था वो शख्स जिसने पहली बार पूजा की थी? चलिए जानते हैं.

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किसने सबसे पहले की थी दुर्गा पूजा

पहली बार दुर्गा पूजा के आयोजन को लेकर कई कहानियां हैं. कहा जाता है कि पहली बार नौवीं सदी में बंगाल के एक युवक ने इसकी शुरुआत की थी. बंगाल के रघुनंदन भट्टाचार्य नाम के एक विद्वान के पहली बार दुर्गा पूजा आयोजित करने का जिक्र भी मिलता है. एक दूसरी कहानी के मुताबिक बंगाल में पहली बार दुर्गा पूजा का आयोजन कुल्लक भट्ट नाम के पंडित के निर्देशन में ताहिरपुर के एक जमींदार नारायण ने करवाया था. यह समारोह पूरी तरह से पारिवारिक था.

बताया जाता है कि 1757 के बाद 1790 में राजाओं, सामंतों और जमींदारों ने पहली बार बंगाल के नदिया जनपद के गुप्ती पाढ़ा में सार्वजनिक दुर्गा पूजा का आयोजन किया था. इसके बाद दुर्गा पूजा सामान्य जनजीवन में भी लोकप्रिय होती गई और इसे भव्य तरीके से मनाने की परंपरा पड़ गई.

एक दूसरी कथा

एक दूसरी कहानी के मुताबिक, लगभग 16वीं शताब्दी के अंत में 1576 ई में पहली बार दुर्गापूजा हुई थी. उस समय बंगाल अविभाजित था जो वर्तमान समय में बांग्लादेश है. इसी बांग्लादेश के ताहिरपुर में एक राजा कंसनारायण हुआ करते थे. कहा जाता है कि 1576 ई में राजा कंस नारायण ने अपने गांव में देवी दुर्गा की पूजा की शुरुआत की थी. कुछ और विद्वानों के अनुसार मनुसंहिता के टीकाकार कुलुकभट्ट के पिता उदयनारायण ने सबसे पहले दुर्गा पूजा की शुरुआत की. उसके बाद उनके पोते कंसनारायण ने की थी. इधर कोलकाता में दुर्गापूजा पहली बार 1610 ईस्वी में कलकत्ता में बड़िशा  के राय चौधरी परिवार के आठचाला मंडप में आयोजित की गई थी. तब कोलकाता शहर नहीं था. तब कलकत्ता एक गांव था जिसका नाम था ‘कोलिकाता’.

 बताया जाता है कि राजा कंसनारायण ने अपनी प्रजा की समृद्धि के लिए और अपने राज्य विस्तार के लिए अश्वमेघ यज्ञ की कामना की थी. उन्होंने यह बात अपने कुल पुरोहितों को बताई. ऐसा कहा जाता है कि राजा कंस नारायण के पुरोहितों ने कहा कि अश्वमेघ यज्ञ कलियुग में नहीं किया जा सकता। इसे भगवान राम ने सतयुग में किया था पर अब कलियुग में इसे करने का कोई फल नहीं है. तब पुरोहितों ने उन्हें दुर्गापूजा महात्मय बारे में बताया. पुरोहितों ने बताया कि कलियुग में शक्ति की देवी महिषासुरमर्दिनी मां दुर्गा सभी को सुख समृद्धि, ज्ञान और शाक्ति प्रदान करती हैं. इसी के बाद राजा कंसनारायण ने धूमधाम से मां दुर्गा की पूजा की. तब से आज तक बंगाल में दुर्गापूजा का सिलसिला चल पड़ा.

प्लासी के युद्ध के बाद पहली बार दुर्गा पूजा का आयोजन

एक कहानी ये भी है कि पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा का आयोजन 1757 के प्लासी के युद्ध के बाद शुरू हुआ. कहा जाता है कि प्लासी के युद्ध में अंग्रेजों की जीत पर भगवान को धन्यवाद देने के लिए पहली बार दुर्गा पूजा का आयोजन हुआ था. प्लासी के युद्ध में बंगाल के शासक नवाब सिराजुद्दौला की हार हुई थी.


युद्ध के दौरान नवाब सिराजुद्दौला ने इलाके के सारे चर्च को नेस्तानाबूद कर दिया था. उस वक्त अंग्रेजों के हिमायती राजा नव कृष्णदेव सामने आए. उन्होंने रॉबर्ट क्लाइव के सामने भव्य दुर्गा पूजा आयोजित करने का प्रस्ताव रखा. इस प्रस्ताव पर रॉबर्ट क्लाइव भी तैयार हो गया. उसी वर्ष पहली बार कोलकाता में भव्य दुर्गा पूजा का आयोजन हुआ. पूरे कोलकाता को शानदार तरीके से सजाया गया. कोलकाता के शोभा बाजार के पुरातन बाड़ी में दुर्गा पूजा का आयोजन हुआ. इसमें कृष्णनगर के महान चित्रकारों और मूर्तिकारों को बुलाया गया. भव्य मूर्तियों का निर्माण हुआ. वर्मा और श्रीलंका से नृत्यांगनाएं बुलवाई गईं. रॉबर्ट क्लाइव ने हाथी पर बैठकर समारोह का आनंद लिया. इस आयोजन को देखने के लिए दूर-दूर से चलकर लोग कोलकाता आए थे.


इस आयोजन के प्रमाण के तौर पर अंग्रेजों की एक पेटिंग भी मिलती है. जिसमें कोलकाता में हुई पहली दुर्गा पूजा को दर्शाया गया है. राजा नव कृष्णदेव के महल में भी एक पेंटिंग लगी थी. इसमें कोलकाता के दुर्गा पूजा आयोजन को चित्रित किया गया था. इसी पेंटिंग की बुनियाद पर पहली दुर्गा पूजा की कहानी कही जाती है.

1757 के दुर्गा पूजा आयोजन को देखकर बड़े अमीर जमींदार भी अचंभित हो गए. बाद के वर्षों में जब बंगाल में जमींदारी प्रथा लागू हुई तो इलाके के अमीर जमींदार अपना रौब रसूख दिखाने के लिए हर साल भव्य दुर्गा पूजा का आयोजन करने लगे. इस तरह की पूजा को देखने के लिए दूर-दूर के गांवों से लोग आते थे. धीरे-धीरे दुर्गा पूजा लोकप्रिय होकर सभी जगहों पर होने लगी. कोलकाता के उन पुराने जमींदार के घरों में आज भी पूजा होती हैं.

आपको बता दे राज परिवारों में होने वाली पारंपरिक दुर्गापूजा चार अलग अलग विधियों में होती है. विद्वानों की माने तो पहली विधि कालिकापुराण की विधि के अनुसार है. दूसरी विधि वृहद नंदीकेश्वर विधि के अनुसार है. तीसरी विधि देवीपुराण के अनुसार और चौथी व आखिरी विधि मत्स्य पुराण के अनुसार है. राज्य के हर जिलों में होनी वाली इन्हीं चार विधियों में होती है. फिलहाल पूजा की मूल विधियां समान है पर अब थोड़ा बहुत अंतर है.

Tami

Tamishree Mukherjee I am researching on Sanatan Dharm and various hindu religious texts since last year .

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