धर्म संवाद / डेस्क : भारत में स्थित अनेक ऐतिहासिक और धार्मिक स्थल, अपनी आध्यात्मिकता और संस्कृति के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्हीं में से एक है भगवती अम्मान मंदिर, जो तमिलनाडु राज्य के कन्याकुमारी में स्थित है। यह मंदिर देवी कन्याकुमारी को समर्पित है, जिन्हें भगवती अम्मान के रूप में पूजा जाता है। यहाँ की ऐतिहासिक और पौराणिक मान्यताएँ इसे एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल बनाती हैं। कन्याकुमारी का यह मंदिर समुद्र के किनारे स्थित है, और यहाँ का दृश्य अत्यंत मंत्रमुग्ध करने वाला होता है। माना जाता है कि यहां माता सती की रीढ़ की हड्डी गिरी थी।
पौराणिक कथाओं के अनुसार, कहा जाता है कि बाणासुर नामक एक राक्षस दैत्यों का राजा था उसने ब्रह्मा जी की पूजा कर उनसे अमृत देने का वर मांगा। ब्रह्माजी ने कहा,’अमृत तो नहीं मिल सकता है पर जिस तरह से तुम अपनी मृत्यु चाहते हो वह मांग सकते हो।‘इस पर उसने एक कुमारी कन्या से ही मृत्यु मांगी। वह सोचता था कि कोई भी कुमारी कन्या उसे नहीं मार सकती। इसके पश्चात बाणासुर, देवताओं को तंग करने लगा। तंग होकर, देवताओं ने भगवान विष्णु और लक्ष्मीजी से सहायता की गुहार लगायी। उन्होंने उन्हें पराशक्ति, जो कि देवी पार्वती का ही एक रूप हैं, की पूजा करने को कहा। ब्रह्मा जी के वर के कारण वे ही बाणासुर से मुक्ति दिला सकती थीं। देवताओं की पूजा से प्रसन्न हो कर, देवी पराशक्ति ने, बाणासुर को मारने का वायदा किया। उन्होंने कुमारी कन्या के रूप में जन्म लिया। कन्यारूपी भगवती ने भगवान शिव से विवाह करने के लिए उनकी तपस्या शुरू कर दी।
उन्होंने समुद्र में एक चट्टान पर एक टांग से खड़े होकर, उन्होंने शिव जी की पूजा की। शिवजी भी मान गए। परंतु देवता घबरा गए क्योंकि बाणासुर का वध देवी द्वारा ही होना था किन्तु अगर उनका विवाह हो गया तो यह असंभव हो जाता। तब नारद जी ने शिवजी से कहा,‘भगवन आपकी शादी का शुभ मुहूर्त सुबह के पहले है। इसलिए वह सुबह के पहले ही शादी करें।‘शिवजी भी अपनी बारात लेकर सुचीन्द्रम नामक जगह पर रूके। सुबह के पूर्व उनके बारात लेकर शादी के लिए निकलने के पहले ही, नारद जी ने मुर्गे का रूप धारण करके बांग देना शुरू कर दिया। जिससे उन्हें लगा कि सुबह हो गयी है और महूर्त नहीं रहा। इसलिए वे शादी के लिए नहीं गये।
कहा जाता है कि कुमारी कन्या की जब शादी नहीं हो पायी तो उसके सारे गहने और जेवरात रंग बिरंगे पत्थरों में बदल गये, जो कि इस समय भी कन्याकुमारी के समुद्र तट पाये जाते हैं। फिर बाणासुर को, कुमारी कन्या की सुंदरता के बारे में पता चला। उसने उनसे शादी करने की इच्छा प्रकट की जिसे, उन्होंने मना कर दिया। बाणासुर, उन्हें बलपूर्वक जीतकर उनसे शादी करनी चाही। इस पर दोनो के बीच युद्घ हुआ और बाणासुर मारा गया ।
नारदजी और भगवान परशुराम ने देवी से कलयुग के अंत तक पृथ्वी पर रहने का अनुरोध किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। इसलिए परशुराम ने समुद्र के किनारे इस मंदिर का निर्माण किया और देवी कन्याकुमारी की मूर्ति स्थापित की। यहां माता की मूर्ति काले पत्थर की बनी है। मंदिर के अंदर 11 तीर्थ स्थल हैं। अंदर के परिसर में तीन गर्भ गृह गलियारे और मुख्य नवरात्रि मंडप है।
मंदिर का इतिहास 3000 साल से भी पुराना है। पौराणिक कथाओं के अनुसार यहां भगवान परशुराम ने देवी कन्या कुमारी की मूर्ति स्थापित की थी। वर्तमान मंदिर का निर्माण 8वीं शताब्दी में पांड्या सम्राटों द्वारा किया गया था। चोलाचेरी वेनाड और नायक राजवंशो के शासन के दौरान समय-समय पर इसका पुनर्निर्माण हुआ। राजा मार्तंड वर्मा के राज्यकाल में कन्याकुमारी का इलाका त्रावणकोर राज्य का हिस्सा बन गया था, जिसकी राजधानी पद्मनाद पुरम थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वर्ष 1956 में ये तमिलनाडु का एक जिला बन गया। कन्याकुमारी जिले का नाम देवी कन्याकुमारी के नाम पर ही रखा गया है।
यह भी पढ़े : श्रीकृष्ण की बहन देवी योगमाया का मंदिर, माना जाता है 5000 साल पुराना
कन्याकुमारी मंदिर के वास्तुकला प्रवीण शैली की है, जिसमें काले पत्थर के खंबों पर नक्काशी की गयी है। मंदिर में कई गुंबज है जिनमें गणेश, सूर्यदेव, अय्यप्पा, स्वामी कालभैरव, विजय सुंदरी और बाला सुंदरी आदि देवी देवताओं की मूर्तियां हैं। मंदिर परिसर में मूल गंगा तीर्थ नामक हुआ है, जहाँ से देवी के अभिषेक का जल लाया जाता है। मंदिर का मुख्य द्वार पूर्व की ओर है, जो कभी किसी समय खुला रहता था। लेकिन, अब प्रवेश उत्तरी द्वार से किया जाता है। पूर्व द्वार वर्ष में केवल पांच बार विशेष त्योहारों के अवसर पर ही खुलता है। पूर्व द्वार बंद होने के पीछे ये कहानी है की देवी किन्नत का हीरा अत्यंत तेजस्वी था तथा उसकी चमक दूर तक जाती थी। इसे Light House समझ कर जहाज़ इस दिशा में आ जाते और चट्टानों से टकरा जाते थे। यही कारण है कि मंदिर का पूर्वी द्वार बंद रखा जाता है ।