ऋषि, मुनि, साधु और सन्यासी में क्या है अंतर?

By Tami

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धर्म संवाद / डेस्क : सनातन धर्म में ऋषि-मुनियों को एक विशेष स्थान प्राप्त है। ऋषि – मुनि वर्षों तपस्या कर के ज्ञान अर्जित करते थे और यही ज्ञान वे लोगों में बांटते थे। वे अपने ज्ञान से समाज को एक सही दिशा में ले जाते थे और समाज का कल्याण करने में सहायक थे।आज के ज़माने में भी वनों में, पहाड़ो में ऐसे साधू, संत देखने को मिल जाते हैं। इन लोगों को ज़्यादातर ऋषि, मुनि, साधु और संन्यासी आदि नामों से पुकारा जाता है। ये अपना घर, परिवार त्याग कर आध्यात्म को अपना लेते हैं और इधर उधर विचरण करते रहते हैं। हालाँकि कुछ ऋषियों ने गृहस्थ जीवन भी बिताया है। आइये इनके बारे विस्तार से जानते हैं।

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संत

संत की उपाधि उन्हें दी जाती है, जिनका आचरण सत्य होता है। प्राचीन काल में कई आत्मज्ञानी व सत्यवादी लोग थे, जिन्हें संत कहा जाता था। जैसे संत कबीरदास, संत तुलसीदास, संत रविदास इत्यादि। इन्होंने संसार और आध्यात्म के बीच संतुलन बना कर रखा था। साथ अपनी रचनाओं से सही और गलत का पाठ पढ़ाया था। हर साधु और ऋषि को ‘संत’ नहीं कहा जाता है। जो व्यक्ति संसार और आध्यात्मिकता के बीच संतुलन बनाता है, सिर्फ उसे ही ‘संत’ कहा जाता है।

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साधु

साधना से ही जो ज्ञान प्राप्त करते हैं, वह साधु कहलाते हैं। साथ ही शास्त्रों में यह भी बताया गया है कि जो व्यक्ति काम, क्रोध, लोभ मोह इत्यादी से दूर रहता है, उन्हें भी साधु ही कहा जाता है। संस्कृत में साधु शब्द से तात्पर्य है सज्जन व्यक्ति। लघुसिद्धांत कौमुदी में साधु का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि “साध्नोति परकार्यमिति साधु: अर्थात जो दूसरे का कार्य करे वह साधु है।  साधु के लिए यह भी कहा गया है “आत्मदशा साधे ” अर्थात संसार दशा से मुक्त होकर आत्मदशा को साधने वाले साधु कहलाते हैं। वर्तमान में वैसे व्यक्ति जो संन्यास दीक्षा लेकर गेरुआ वस्त्र धारण करते हैं और जिनका मूल उद्देश्य समाज का पथ प्रदर्शन करते हुए धर्म के मार्ग पर चलते हुए मोक्ष को प्राप्त करते हैं, साधु कहलाते हैं।

ऋषि

ऋषि उन ज्ञानियों को कहा जाता है, जिन्होंने वैदिक रचनाओं का निर्माण किया था। उन्हें कठोर तपस्या के बाद यह उपाधि प्राप्त होती है। ऋषि वह कहलाते हैं जो क्रोध, लोभ, मोह, माया, अहंकार, इर्ष्या इत्यादि से कोसों दूर रहते हैं। ऋषियों के लिए इसी लिए कहा गया है “ऋषि: तु मन्त्र द्रष्टारा : न तु कर्तार : अर्थात ऋषि मंत्र को देखने वाले हैं न कि उस मन्त्र की रचना करने वाले। हालाँकि कुछ स्थानों पर ऋषियों को वैदिक ऋचाओं की रचना करने वाले के रूप में भी व्यक्त किया गया है।

ऋषियों के सम्बन्ध में मान्यता थी कि वे अपने योग से परमात्मा को उपलब्ध हो जाते थे और जड़ के साथ साथ चैतन्य को भी देखने में समर्थ होते थे। वे भौतिक पदार्थ के साथ साथ उसके पीछे छिपी ऊर्जा को भी देखने में सक्षम होते थे। ऋषियों को भारतीय दर्शन, धर्म और संस्कृति का संस्थापक माना जाता है। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार, प्रत्येक मनुष्य में 3 प्रकार की आंखें होती हैं, ज्ञान चक्षु (ज्ञान चक्षु), दिव्य चक्षु (दिव्य दृष्टि), और परम चक्षु (परम दृष्टि)। जिस व्यक्ति का ‘ज्ञान चक्षु’ जागृत हो जाता है, वह ‘ऋषि’ कहलाता है। ‘जिसका दिव्य नेत्र जागृत हो जाता है, वह ‘महर्षि’ कहलाता है, और जिसका ‘परम चक्षु’ जागृत हो जाता है, वह ‘ब्रह्मर्षि’ कहलाता है।

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पुराणों में सप्त ऋषियों का भी उल्लेख मिलता है। केतु, पुलह, पुलत्स्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ठ और भृगु सप्त ऋषि हैं। इसी तरह अन्य स्थान पर सप्त ऋषियों की एक अन्य सूचि मिलती है जिसमे अत्रि, भृगु, कौत्स, वशिष्ठ, गौतम, कश्यप और अंगिरस तथा दूसरी में कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि, भरद्वाज को सप्त ऋषि कहा गया है।

मुनि

भगवत गीता में मुनियों के बारे में कहा गया है जिनका चित्त दुःख से उद्विग्न नहीं होता, जो सुख की इच्छा नहीं करते और जो राग, भय और क्रोध से रहित हैं, ऐसे निश्छल बुद्धि वाले संत मुनि कहलाते हैं। मुनि उन आध्यात्मिक ज्ञानियों को भी कहा जाता है जो अधिकांश समय मौन धारण करते हैं या बहुत कम बोलते हैं। लेकिन मुनियों को वेद एवं ग्रंथों का पूर्ण ज्ञान होता है। साथ ही वह मौन रहने की शपथ भी लेते हैं। जो ऋषि घोर तपस्या के बाद मौन धारण करने की शपथ लेते हैं, वह मुनि कहलाते हैं। जैन ग्रंथों में भी मुनियों की चर्चा की गयी है। वैसे व्यक्ति जिनकी आत्मा संयम से स्थिर है, सांसारिक वासनाओं से रहित है, जीवों के प्रति रक्षा का भाव रखते हैं, अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, ईर्या (यात्रा में सावधानी ), भाषा, एषणा(आहार शुद्धि ) आदणिक्षेप(धार्मिक उपकरणव्यवहार में शुद्धि ) प्रतिष्ठापना(मल मूत्र त्याग में सावधानी )का पालन करने वाले, सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायतसर्ग करने वाले तथा केशलोच करने वाले, नग्न रहने वाले, स्नान और दातुन नहीं करने वाले, पृथ्वी पर सोने वाले, त्रिशुद्ध आहार ग्रहण करने वाले और दिन में केवल एक बार भोजन करने वाले आदि 28 गुणों से युक्त महर्षि ही मुनि कहलाते हैं।

सन्यासी

सन्यासी शब्द सन्यास से निकला हुआ है जिसका अर्थ त्याग करना होता है। अतः त्याग करने वाले को ही सन्यासी कहा जाता है। सन्यासी संपत्ति का त्याग करता है, गृहस्थ जीवन का त्याग करता है या अविवाहित रहता है, समाज और सांसारिक जीवन का त्याग करता है और योग ध्यान का अभ्यास करते हुए अपने आराध्य की भक्ति में लीन हो जाता है।

हिन्दू धर्म में तीन तरह के सन्यासियों का वर्णन है

  • परिव्राजक सन्यासी –भ्रमण करने वाले सन्यासियों को परिव्राजकः की श्रेणी में रखा जाता है। आदि शंकराचार्य और रामनुजनाचार्य परिव्राजकः सन्यासी ही थे।
  • परमहंस सन्यासी – यह सन्यासियों की उच्चत्तम श्रेणी है। परमहंस एक ऐसी अवस्था का नाम है जहां पर कोई भी जीव सांसारिक आसक्तियों से ऊपर उठ चुका होता है। यह अवस्था सिर्फ और सिर्फ समाधि के मार्ग से होकर ही पायी जा सकती है, तथा समाधि में ध्यान के द्वारा ही प्रविष्ट हुआ जा सकता है।
  • यति सन्यासी- उद्द्येश्य की सहजता के साथ प्रयास करने वाले सन्यासी इस श्रेणी के अंतर्गत आते हैं।

वास्तव में सन्यासी वैसे व्यक्ति को कह सकते हैं जिसका आतंरिक स्थिति स्थिर है और जो किसी भी परिस्थिति या व्यक्ति से प्रभावित नहीं होता है और हर हाल में स्थिर रहता है। उसे न तो ख़ुशी से प्रसन्नता मिलती है और न ही दुःख से अवसाद। इस प्रकार निरपेक्ष व्यक्ति जो सांसारिक मोह माया से विरक्त अलौकिक और आत्मज्ञान की तलाश करता हो संन्यासी कहलाता है।

Tami

Tamishree Mukherjee I am researching on Sanatan Dharm and various hindu religious texts since last year .