सनातन धर्म में क्या होते हैं 16 संस्कार? क्या होता है उनका महत्व

By Tami

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16 संस्कार

धर्म संवाद / डेस्क : सनातन धर्म में 16 संस्कार होते हैं। प्राचीन काल में हर एक कार्य संस्कार से आरम्भ हुआ करते थे । उस समय संस्कारों की संख्या भी लगभग चालीस थी। जैसे-जैसे समय बदलता गया कुछ संस्कार विलुप्त हो गये। गौतम स्मृति में चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है। महर्षि अंगिरा ने इनका अंतर्भाव पच्चीस संस्कारों में किया। व्यास स्मृति में 16 संस्कारों का वर्णन हुआ है।  सोलह संस्कारों में हिन्दू धर्म की संस्कृति और परम्पराएं निहित हैं जो मनुष्य के जन्म से मृत्यु तक किए जाते हैं।

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1. गर्भाधान संस्कार- यह सभी संस्कारों में एक शिशु के लिए पहला संस्कार है। इस संस्कार में विवाहित स्त्री जब शुद्ध विचारों और शारीरिक रूप से स्वस्थ होकर गर्भधारण करती है तब उसे स्वस्थ और बुद्धिमान शिशु की प्राप्ति होती है। इस संस्कार से हिन्दू धर्म यह सिखाता है कि विवाहित स्त्री-पुरुष का मिलन अपनी वंशवृद्धि के लिए होना चाहिए।

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2. पुंसवन संस्कार- विवाहित स्त्री और पुरुष के मिलन से जब स्त्री गर्भधारण कर लेती है। गर्भ की रक्षा के लिए स्त्री और पुरुष मिलकर प्रतिज्ञा लेते हैं कि वह ऐसा कोई काम नहीं करेंगे जिससे गर्व को नुकसान हो।पुंसवन संस्कार का प्रयोजन स्वस्थ एवं उत्तम संतान को जन्म देना है। 

3. सीमन्तोन्नयन संस्कार – इस संस्कार को गर्भधारण करने के बाद  1 या 2  महीने में किया जाता है। इस संस्कार के द्वारा गर्भ में पल रहे बच्चे के अच्छे गुण, स्वभाव और कर्मों का विचार किया जाता है। इस दौरान गर्भवती महिला जैसा आचरण रखती है और जिस प्रकार से वह व्यवहार करती है उसका असर गर्भ में पल रहे बच्चे पर पड़ता है।

4. जातकर्म संस्कार – यह संस्कार शिशु के जन्म के बाद होता है। माना जाता है कि इस संस्कार के करने से गर्भ में उत्पन्न दोषों को समाप्त किया जा सकता है। इस संस्कार में नवजात शिशु को सोने के चम्मच या अनामिका उंगली से शहद और घी चटाया जाता है। प्राचीन लोगों का मानना है कि इससे शिशु की आयु बढ़ती है और पित्त व वात का नाश हो सकता है।

5. नामकरण संस्कार- यह शिशु के जन्म के बाद उसके नाम रखने का एक नियम है। यह बहुत महत्वपूर्ण संस्कार है। जन्म नक्षत्र को ध्यान में रखते हुए बालक को नाम दिया जाता है। यह बालक के व्यक्तित्व का विकास करता है।  

6. निष्क्रमण संस्कार- इस संस्कार में शिशु के आयु वृद्धि की कामना की जाती है एवं बच्चे के उज्जवल भविष्य के लिए प्रार्थना की जाती है। यह संस्कार शिशु के 4 या 6 महीने पूरे होने के बाद किया जाता है। इस संस्कार में शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा के दर्शन कराने का विधान है।

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7. अन्नप्राशन संस्कार- अन्नप्राशन संस्कार में जब शिशु 6 महीने का हो जाता है तो उसे पहली बार  अन्न का भोग लगाया जाता है। इस संस्कार का उद्देश्य खाद्य पदार्थों से बालक का शारीरिक और मानसिक विकास करना है। क्योंकी एक समय के बाढ़ सिर्फ दूध बच्चे को पोषण  नहीं मिल सकता । यही इसकी वैज्ञानिकता है।   

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8. मुंडन/चूडाकर्म संस्कार- आठवा संस्कार मुंडन/चूडाकर्म संस्कार है। इस संस्कार में शिशु का मुंडन किया जाता है। माना जाता है कि इस संस्कार से शिशु को बुद्धि, बल और आयु की प्राप्ति होती है।

9. विद्यारंभ संस्कार – नौवां संस्कार विद्यारंभ संस्कार है जिसमे शिशु का पहली बार विद्या से परिचय होता है। शिशु को इस संस्कार में स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा जाता है। प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी तो बालक को वेदाध्ययन के लिए भेजने से पहले घर में अक्षर बोध कराया जाता था। 

10. कर्णवेध संस्कार- दसवां संस्कार कर्णवेध संस्कार है जिसे कर्ण छेदन संस्कार भी कहा जाता है। इस में बच्चे का कान छेदने का रस्म पूरा किया जाता है। इस संस्कार को शिशु के जन्म के बाद 6 माह से लेकर 5 वर्ष तक कभी भी किया जा सकता है।

11. यज्ञोपवीत संस्कार- इस संस्कार में जनेऊ धारण किया जाता है। इस संस्कार के बाद बालक को वेदों के अध्ययन करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है।

12. वेदारम्भ संस्कार- प्राचीन काल में वेदारम्भ संस्कार में वह बालक गुरुकुल आदि में जाकर वेदों उपनिषदों की पढ़ाई किया करते थे। आजकल गुरुकुल में ना जाकर वह शिक्षा के लिए स्कूल में जाकर पढ़ाई करता है।

13. केशान्त संस्कार- केशान्त संस्कार में बालक अपने केशो को त्याग दिया करते थे। पुराने समय में गुरुकुल में पढ़ने वाले बालक अपनी शिक्षा पूरी होने के बाद अपने केशो त्याग देते है। इस संस्कार का उद्देश्य बालक को शिक्षा क्षेत्र से निकाल कर सामाजिक क्षेत्र से जोडऩा है। गृहस्थाश्रम में प्रवेश का यह प्रथम चरण है। बालक  का आत्मविश्वास बढ़ाने, समाज और कर्म क्षेत्र की परेशानियों से अवगत कराने का कार्य यह संस्कार करता है।  

14. समावर्तन संस्कार- समावर्तन संस्कार में बालक गुरुकुल से शिक्षा प्राप्त कर वहां से विदाई लेकर सामाजिक जीवन में जाता है। अपनी शिक्षा पूरी होने के बाद वह अपने सामाजिक जीवन को जीता है। आज गुरुकुल परम्परा समाप्त हो गई है, इसलिए यह संस्कार अब नहीं  किया जाता है। 

15. विवाह संस्कार- विवाह संस्कार में व्यक्ति सामाजिक जीवन से वैवाहिक जीवन में कदम रखता है. इस संस्कार में व्यक्ति विवाह करके गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है।

16. अन्त्येष्टि संस्कार- अन्त्येष्टि संस्कार/श्राद्ध संस्कार सबसे आखिर का संस्कार है जिसमे मृत्यु के बाद व्यक्ति का अंतिम संस्कार होता है.

Tami

Tamishree Mukherjee I am researching on Sanatan Dharm and various hindu religious texts since last year .