धर्म संवाद / डेस्क : भीष्म पितामह महाभारत के प्रमुख और आदरणीय पात्रों में से एक माने जाते है। वे गंगा और राजा शांतनु के पुत्र थे। उनका असली नाम देवव्रत था। वे एक बहुत ही कुशल योद्धा थे। उनके लिए अपने पिता की सेवा और उनकी प्रसन्नता सर्वोपरि थी। इस वजह से उन्होंने एक कठोर प्रतिज्ञा भी ले डाली थी। जिसके बाद उन्हे इच्छा मृत्यु का वरदान मिला था। यही कारण है कि बाणों की शैया पर लेटे रहने के बावजूद उनकी मृत्यु नहीं हुई थी। चलिए आपको बताते हैं कि आखिर यह वरदान उन्हे मिला कैसे।
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महाभारत के अनुसार, देव व्रत ने महर्षि पशुराम से शास्त्र विद्या प्राप्त की, जिसके बाद देवी गंगा ने देव व्रत को उनके पिता राजा शांतनु के पास छोड़ गई। राजा शांतनु ने देवव्रत को हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। इसके कुछ दिन गुजरने के बाद, एक दिन महाराज शांतनु आखेट के लिए निकले । इस क्रम में वे बहुत दूर चले गए। जिसके बाद अंधेरा होने की वजह से वे वापस नहीं लौट सके। उस वक्त उन्हें जंगल में एक विश्राम स्थल मिला। जहां विश्राम के दौरान उनकी मुलाकात सत्यवती से हुई। शांतनु और सत्यवती दोनों एक दूसरे को मन ही मन चाहने लगे। अगले दिन राजा शांतनु ने सत्यवती के पिता के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। परंतु सत्यवती के पिता ने उनके सामने एक शर्त रख दी।
वह शर्त यह थी कि राजा शांतनु और उनकी बेटी सत्यवती का पुत्र ही हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी बनेगा तभी वह अपनी बेटी का हाथ राजा शांतनु के हाथ में देंगे। परंतु, राजा शांतनु देवव्रत को उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे। इस शर्त के कारण वे धर्म संकट में फस गए थे। तब देवव्रत ने अपने पिता की खुशी के लिए एक कठोर (भीष्म) प्रतिज्ञा ली। पिता के प्यार की खातिर उन्होंने अपना राज्य त्याग कर पूरे जीवन शादी ना करने का प्रण ले लिया,और ऐसे भीष्म प्रण और प्रतिज्ञा के कारण ही देवव्रत का नाम भीष्म हो गया।
उनके इस त्याग से प्रसन्न उनके पिता राजा शांतनु ने उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान दिया था। कालांतर में राजा शांतनु की मृत्यु के बाद पांडु राजा बना, लेकिन पांडु की मृत्यु के बाद धृतराष्ट्र राजा बना। उसके बाद राजसिंहासन की लड़ाई भयंकर युद्ध में बदल गई और महाभारत हुआ। महाभारत के युद्ध में भीष्म पितामह ने कौरवों का साथ दिया और परास्त होकर बाणों की शैया पर लेटे रहे। उनकी इच्छा मृत्यु के वरदान के वजह से वे 58 दिनों तक बाणों की शैया पर ही लेटे रहे और सूर्य के उत्तरायण की प्रतीक्षा करते रहे। कहते हैं जो व्यक्ति सूर्य के उत्तरायण में अपने प्राण त्यागता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है और फिर उसे इस जीवन मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाती है। जब सूर्य उत्तरायण हुआ तो भीष्म पितामह ने श्रीकृष्ण की वंदना कर अंतिम सांस ली।