धर्म संवाद / डेस्क : महाकुंभ हिन्दू धर्म में बहुत अधिक महत्व रखता है। महाकुंभ एक महत्वपूर्ण हिंदू तीर्थयात्रा है, जो हर 12 वर्ष में आयोजित की जाती है। इसे विश्व का सबसे बड़ा सांस्कृति और धार्मिक मेला माना जाता है। माना जाता है कि आदि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी, लेकिन कुछ कथाओं के अनुसार कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन के से ही हो गई थी। शास्त्रों में बताया गया है कि पृथ्वी का एक वर्ष देवताओं का दिन होता है, इसलिए हर बारह वर्ष पर एक स्थान पर पुनः कुंभ का आयोजन होता है।
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कुम्भ’ का शाब्दिक अर्थ “घड़ा, सुराही, बर्तन” है। यह वैदिक ग्रन्थों में पाया जाता है। इसका अर्थ, अक्सर पानी के विषय में या पौराणिक कथाओं में अमरता (अमृत) के बारे में बताया जाता है। इस प्रकार, कुम्भ मेले का अर्थ है “अमरत्व का मेला”। साल 2025 में महाकुंभ मेले का आरंभ 13 जनवरी 2025 को पौष पूर्णिमा के दिन से होगा और समापन 26 फरवरी 2025 को महाशिवरात्रि पर होगा।
कहते हैं कुंभ मेले का कहानी समुद्र मंथन से जुड़ी है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, जब ऋषि दुर्वासा ने संसार को श्री हीन हो जाने का श्राप दिया था तब भगवान विष्णु ने देवताओं और असुरों को समुद्र मंथन करने की सलाह दी थी। मंथन से कई चीजें निकली। सबसे पहले कालकूट विष निकला था जिसे महादेव ने अपने कंठ में धारण कर नीलकंठ की उपाधि प्राप्त की थी . इसके बाद कामधेनु, उच्चैश्रवा घोड़ा, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, रंभा अप्सरा, देवी लक्ष्मी, वारुणि देवी, चंद्रमा, पारिजात पुष्प , पांचजन्य शंख, भगवान धन्वंतरि और अमृत कलश निकले. अमृत निकलते ही देवताओं के इशारे पर इंद्र पुत्र ‘जयंत’ अमृत कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। राक्षसों ने अमृत लाने के लिए जयंत का पीछा किया . फिर अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव और दानव में 12 दिन तक भयंकर युद्ध होता रहा। इसी संघर्ष में 4 स्थानों पर अमृत की कुछ बूंदें गिर गईं। यह स्थान पृथ्वी पर हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक थे। यहीं कारण है कि यहीं पर प्रत्येक 12 वर्ष में कुंभ का आयोजन होता है। देवताओं के 12 दिन, मनुष्यों के 12 साल के बराबर हैं, इसलिए इन पवित्र स्थानों पर प्रत्येक 12 वर्षों के बाद कुंभ मेला लगता है। कहते हैं कि इस दौरान कुंभ की नदियों का जल अमृत के समान हो जाता है। इसीलिए इसमें स्नान और आचमन करने से समस्त पाप धूल जाते हैं और मोक्ष का मार्ग आसान हो जाता है।
कुंभ को 4 हिस्सों में बांटा गया है। जैसे अगर पहला कुंभ हरिद्वार में होता है तो ठीक उसके 3 साल बाद दूसरा कुंभ प्रयाग में और फिर तीसरा कुंभ 3 साल बाद उज्जैन में, और फिर 3 साल बाद चौथा कुंभ नासिक में होता है।
इलाहाबाद कुंभ
मेष राशि के चक्र में बृहस्पति एवं सूर्य और चन्द्र के मकर राशि में प्रवेश करने पर अमावस्या के दिन कुम्भ का पर्व प्रयाग में आयोजित किया जाता है। एक अन्य गणना के अनुसार मकर राशि में सूर्य का एवं वृष राशि में बृहस्पति का प्रवेश होनें पर कुम्भ पर्व प्रयाग में आयोजित होता है।
हरिद्वार कुंभ-
कुम्भ राशि में बृहस्पति का प्रवेश होने पर एवं मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होने पर कुम्भ का पर्व हरिद्वार में आयोजित किया जाता है। हरिद्वार और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ का आयोजन होता है।
नासिक कुंभ
सिंह राशि में बृहस्पति के प्रवेश होने पर कुम्भ पर्व गोदावरी के तट पर नासिक में होता है। अमावस्या के दिन बृहस्पति, सूर्य एवं चन्द्र के कर्क राशि में प्रवेश होने पर भी कुम्भ पर्व गोदावरी तट पर आयोजित होता है। इस कुंभ को सिंहस्थ इसलिए कहते हैं क्योंकि इसमें सिंह राशि में बृहस्पति का प्रवेश होता है।
उज्जैन कुंभ
सिंह राशि में बृहस्पति एवं मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होने पर यह पर्व उज्जैन में होता है। इसके अलावा कार्तिक अमावस्या के दिन सूर्य और चन्द्र के साथ होने पर एवं बृहस्पति के तुला राशि में प्रवेश होने पर मोक्ष दायक कुम्भ उज्जैन में आयोजित होता है। इस कुंभ को सिंहस्थ इसलिए कहते हैं क्योंकि इसमें सिंह राशि में बृहस्पति का प्रवेश होता है।
मान्यता यह भी है कि कुंभ भी बारह होते हैं जिनमें से चार का आयोजन धरती पर होता है शेष आठ का देवलोक में। इसी मान्यता अनुसार प्रत्येक 144 वर्ष बाद महाकुंभ का आयोजन होता है जिसका महत्व अन्य कुंभों की अपेक्षा और बढ़ जाता है।
अघोरी एवं नागासाधु
आम तौर पर अघोरी एवं नागा साधु नजर नहीं आते परंतु महाकुंभ में इनकी उपस्थिति अवश्य होती है। उनकी मौजूदगी शाही स्नान को और भी प्रभावशाली बना देती है। वे पूरी शाही शान-शौकत के साथ नाचते-गाते और अपने साथ गदा, तलवार और अन्य शस्त्रों को लेकर भजन-कीर्तन करते हुए रथों, हाथी और पैदल संगम तट पर पहुंचते हैं।